शनिवार, 19 दिसंबर 2009

21 जनवरी 2010, गुरूवार, सायं 7 बजे से



पर्वतीय नाट्य मंच

के तत्वाधान में



ममता भट्ट

द्वारा



समस्त उत्तराखण्डी प्रवासियों के लिए नव वर्ष की सप्रेम भेंट

बीर भड़ माधोसिंह भण्डारी (गीत नाटिका)

और

गीत नाटिका के पार्श्व गायक या पार्श्व गायिका

प्रीतम भरतवाण

मीना राणा





और विरेन्द्र राजपूत, बिक्रम कप्रवाण, जितेन्द्र पंवार,

मंजू सुंदरियाल, दीपा पंत आदि




स्थान ->: श्री षणमुखानंद सभागृह ( किंग्सर्कल स्टेशन समीप)

सोमवार, 29 जून 2009

पहाड़ी भाइयों तैं चार पंक्ति

पहाड़ी भाइयों तैं चार पंक्ति

लड़ी लड़ी रे, मरी मरी रे,

पर थकी नी तू कबी,

देश का खातिर त्वेन जान दिनी,

म्यरा पहाड़ी जवान रे कबी।

कैन बोली पहाड़ी छोरा,

कैन जांबाज कबी,

लड़ी लड़ी रे, मरी मरी रे,

पर थकी नी तू कबी।।

देश की सीमा पर बी तू च,

देश का बाहेर बी तू,

कबी जवान का रूप मा,

कबी खेत मा च तू,

संघर्ष भर्यों जीवन च तेरू,

हरी न रे लाड़ा कबी,

लड़ी लड़ी रे, मरी मरी रे,

पर थकी नी तू कबी।।।

जन्म भूमि कू बी तू प्यारू,

कर्म भूमि कू बी प्यारू,

रखी हमेशा शाक अफड़ी,

बिकी न कै लालच मा तू,

लड़ी लड़ी रे, मरी मरी रे

पर थकी नी तू कबी।V

वचन

वचन

संज्ञा तथा अन्य विकारी शब्दों के जिस रूप से उसके वाच्य पदार्थ की संख्या का ज्ञान होता है उसे वचन कहते हैं।

हिन्दी की ही भाँति गढ़वाली में भी एक वचन और बहुवचन दो ही वचन होते हैं। विभक्ति रहित शब्दों के एक वचन से बहुवचन बनाने के नियम इस प्रकार हैं।

पुगंड़ो

पुगड़ा

डालो

डाला

कमलो

कमला

कैंटो

कैंटा

१) औकारान्त पुलिंग शब्दों के अंतिम औ का आ कर देने से-

२)जिन शब्दों के अंत में अ, आ, इ, उ और औ हो उसके रूप प्रायः दोनों बचनों में एक से ही रहते हैं।

एकवचन

बहुवचन

प्रयोग

भेल

भेल

मैदानु मा भेल कख छ्या।

अदाण

अदाण

अदाण उम्लि गैन।

परेक

परेक

द्वी परेक ठोक दी यार।

खल्ला

खल्ला

बखरौं की खल्ला।

माला

माला

माला अलसाणी छन।

रविवार, 28 जून 2009

गढ़वाली व्याकरण की रूप रेखा - में आगे

लिंग

लिंग का अर्थ है चिन्ह। पुरूष जाति और स्त्री जाति का अलग-अलग बोध कराने वाले शब्दों के कारण लिंग के पुलिंग और स्त्रीलिंग दो भेद हैं।

पुलिंग

हिन्दी अर्थ

स्त्रीलिंग

गौड़ो

गाय

गौड़ि

भैंसो

भैंस

भैंसि

बखरो

बकरी

बखरि

देव

भगवान

देवि

स्यँटुलो

एक पक्षी

स्यँटुलि(मादा पक्षी)

घोड़ो

घोड़ा

घोड़ि(घोड़ी)

स्यालो

साला

स्यालि(साली)

गढ़वाली में पुलिंग और स्त्रीलिंग दो ही भेद हैं।

सोमवार, 15 जून 2009

संज्ञा

संज्ञा

संज्ञा उस विकारी शब्द को कहते हैं जिससे नाम का बोध हो। संज्ञायें तीन प्रकार की होती हैं।

१) व्यक्तिवाचक संज्ञा- गढ़वाली में व्यक्तिवाचक संज्ञायें प्रायः किसी आधार को लिये हुए होती हैं। कोई शिशु जिस मासस मौसम या परिस्थति में जन्म ले उसके अनुसार ही उसे प्रायः चैतु, सूर्जी जैसी संज्ञायें मिल जाती हैं। जैसे कोई ठिगने मोटे शरीर का डंफले से आकार का हुआ तो उसे डंफा कहने लगेंगे। कुछ नाम देवताओं के प्रसाद स्वरूप रखे जाते हैं जैसे-भैरवदत्त, दुर्गाप्रसाद।

२) जातिवाचक संज्ञा- जिन शब्दों से एक प्रकार के प्रत्येक पदार्थ का बोध होता है उन्हें जातिवाचक संज्ञा कहते हैं। गढ़वाली में बहुत सी जातिवाचक संज्ञायें स्थानों में बसने के कारण बनी हैं। जैसे- थापली में रहने से थपलियाल, पोखरी में रहने से पोखरियाल आदि।

३) भाववाचक संज्ञा- जिन शब्दों से गुण दशा या व्यापार का बोध होता है वे भाववाचक संज्ञा कहलाते हैं। गढ़वाली में भाववाचक संज्ञाओं का एक अद्भुत भंडार है किन्तु हिन्दी के आई, ई, त्व, ता, पन, वट, हट, आदि प्रत्ययों वाली होने की भांति उनका पहचाना जाना सरल नहीं है। आण, आल़ि, ल़ि, आदि कुछ प्रत्यय हैं जिनसे उन्हें पहचानने में सरलता होती है। इसमें कुछ विलकुल विचित्र भाववाचक संज्ञायें हैं। बारीकी से देखा जाय तो किसी भोज्यपदार्थ को लगातार खाते रहने के बाद उसके प्रति आने वाली अरूचि बिखलाण, किसी तरल पदार्थ में से बार-बार मंथन करके तत्व निकालने को कतोला-कतोल आदि।

कुछ अन्य भाववाचक संज्ञायें नीचे दिए गए शब्दों से बनती हैं।

१) जातिवाचक संज्ञा से-

जातिवाचक संज्ञा भाववाचक संज्ञा

पंडित पंडितै

दुसमन दुसमनै

छोकरा छोर्क्यूल

शुक्रवार, 5 जून 2009

शब्दों के भेद------------

शब्दों के भेद

ब्युत्पति के अनुसार शब्दों के तीन भेद किये गये हैं। गढ़वाली में वे इस रूप में हैं।

१) रूढ़- अर्थात जो किसी अन्य शब्द के योग से न बने हों। जैसे- पाड़, गाड, ढुँगो आदि

२) यौगिक- अर्थात जो अन्य शब्दों के याग से बने हों। जैसे- बिज्वाड़, रोपाक आदि

३) योग रूढ़- अर्थात जो यौगिक शब्दों की तरह अन्य शब्दों के योग बनें हों, किन्तु जिन जिन शब्दों के योग से वे बने हैं उनमें निहित अर्थ को प्रकट न करके कोई और भी अर्थ प्रकट करते हैं। जैसे- हथछेडो, भुँयांकरो आदि

प्रयोगानुसार शब्द भिन्न भिन्न जातियों के होते हैं। कोई व्यक्ति का सूचक होता है। तो कोई किसी व्यक्ति के बारे में विधान करता है। इस दृष्टि से शब्दों के दो भेद हैं विकारी और अविकारी । विकारी वह शब्द होता है जिसमें अर्थानुसार कोई विकार या परिवर्तन होता है और अविकारी शब्द वह होता है जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होता।

विकारी शब्द के चार भेद होते हैं १) संज्ञा २) सर्वनाम ३) विशेषण ४) क्रिया

अविकारी शब्द के भी चार भेद होते हैं-१) क्रिया विशेषण २) संबंध बोधक ३) योजक ४) विस्मयादि बोधक।

गुरुवार, 4 जून 2009

एक कोशिश

दोस्तों गढ़वाली भाषा के विकास के प्रति मेरी कोशिशों में से एक कोशिश यह है । और यह में कर पाया हूँ श्री भीष्मा कुकरेती जी के सहयोग से।
इस पुस्तक के लेखक को नमन करते हुए आरम्भ करता हूँ।
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गढ़वाली व्याकरण की रूप रेखा

अबोधबंधु बहुगुणा( लेखक)

प्रकाशक-------

गढ़वाल साहित्य मण्डल

बी.१२८, सरोजिनी नगर,

नई दिल्ली-३

गढ़वाली व्याकरण की रूपरेखा

विषय प्रवेश

यह सौभाग्य की बात है कि गढ़वाल की २५ लाख जनता की भाषा गढ़वाली की लिपि देवनागरी है। इससे हिन्दी के पाठक के लिए गढ़वाली एक अपरिचित भाषा के रूप में सामने नहीं आती। १२वीं सदी से इस शताब्दी के आरम्भ तक कुछ नागरी वर्ण गढ़वाली में भिन्न रूप में लिखे जाते रहे हैं। इ का रूप ०,० था और र का न। इसी प्रकार ख को ष लिखा जाता रहा। इसमें ल के नीचे बिन्दी वाले वर्ण ल़ ( जिसे हम मूर्दन्य ल कह सकते हैं) का विशेष महत्व है। इस शताब्दी के आरम्भ के प्रथम चरण तक यहाँ विद्यारम्भ औ न म सी ध ( औमनमः सिद्धं) से होता रहा। और बारहखड़ी पढ़ने का एक विचित्र तरीका था। बच्चे च चा चि ची आदि न पढ़ कर विजनकी च, कुन्दनु चा, बाञिमति चि, दैणै ची, उड़ताले चु, बडेरे चू , एकलग चे, दो लग चै, लखन्या चो, दुलखन्या चौ, श्रीबिन्दु चं, दुवास बिन्दु चः इस प्रकार पढ़ा करते थे।

गढ़वाली में आधुनिक ढंग से सन् १८७५ के आसपास से साहित्य लिखा जाना आरम्भ हुआ। परिणामतः आज इसमें लगभग ढाई सौ से अधिक छोटी बड़ी प्रकाशित पुस्तकें हैं। आज गढ़वाल के साहित्यकारों की यह पीढ़ी अपने प्रदेश के लोक साहित्य का संकलन कर भारती का भंडार भर रही है। और साथ ही स्वतंत्रता के बाद काव्य के कई नये मनोहर प्रसून इसमें खिले हैं। यही नहीं आज हिन्दी के भारतेन्दु काल की तरह जोश लिये हुए इस प्रदेश की सरकार से यह भी मांग है कि गढ़वाली को संविधान में पृथक प्रादेशिक भाषा के रूप में स्थान दिया जाय। अस्तु , गढ़वाली साहित्य को उसके व्याकरण के माध्यम से समझने में सरलता होगी। रचना और गटन में गढ़वाली यद्यपि हिन्दी और संस्कृत की बेटी सभी प्रादेशिक भाषाओं की ही भांति है तथापि उसकी अपनी पृथक विविध मौलिकताएँ हैं और उसका पद-विकास भिन्न है।

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